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Tuesday, December 3, 2024

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Nahin Maalum Zaryun Ab Tumhari Umr Kya Hogi

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नहीं मालूम ‘ज़रयून’ अब तुम्हारी उम्र क्या होगी

वो किन ख़्वाबों से जाने आश्ना ना-आश्ना होगी

तुम्हारे दिल के इस दुनिया से कैसे सिलसिले होंगे

तुम्हें कैसे गुमाँ होंगे तुम्हें कैसे गिले होंगे

तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती हो

तुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो

जाने कौन दोशीज़ा तुम्हारी ज़िंदगी होगी

जाने उस की क्या बायसतगी शाइस्तगी होगी

उसे तुम फ़ोन करते और ख़त लिखते रहे होगे

जाने तुम ने कितनी कम ग़लत उर्दू लिखी होगी

ये ख़त लिखना तो दक़यानूस की पीढ़ी का क़िस्सा है

ये सिंफ़-ए-नस्र हम ना-बालिग़ों के फ़न का हिस्सा है

वो हँसती हो तो शायद तुम रह पाते हो हालों में

गढ़ा नन्हा सा पड़ जाता हो शायद उस के गालों में

गुमाँ ये है तुम्हारी भी रसाई ना-रसाई हो

वो आई हो तुम्हारे पास लेकिन पाई हो

वो शायद माइदे की गंद बिरयानी खाती हो

वो नान-ए-बे-ख़मीर-ए-मैदा कम-तर ही चबाती हो

वो दोशीज़ा भी शायद दास्तानों की हो दिल-दादा

उसे मालूम होगा ‘ज़ाल’ था ‘सोहराब’ का दादा

तहमतन यानी ‘रुस्तम’ था गिरामी ‘साम’ का वारिस

गिरामी ‘साम’ था सुल्ब-ए-नर-ए-‘मानी’ का ख़ुश-ज़ादा

(ये मेरी एक ख़्वाहिश है जो मुश्किल है)

वो ‘नज्म’-आफ़ंदि-ए-मरहूम को तो जानती होगी

वो नौहों के अदब का तर्ज़ तो पहचानती होगी

उसे कद होगी शायद उन सभी से जो लपाड़ी हों

होंगे ख़्वाब उस का जो गवय्ये और खिलाड़ी हों

हदफ़ होंगे तुम्हारा कौन तुम किस के हदफ़ होगे

जाने वक़्त की पैकार में तुम किस तरफ़ होगे

है रन ये ज़िंदगी इक रन जो बरपा लम्हा लम्हा है

हमें इस रन में कुछ भी हो किसी जानिब तो होना है

सो हम भी इस नफ़स तक हैं सिपाही एक लश्कर के

हज़ारों साल से जीते चले आए हैं मर मर के

शुहूद इक फ़न है और मेरी अदावत बे-फ़नों से है

मिरी पैकार अज़ल से

ये ‘ख़ुसरो’ ‘मीर’ ‘ग़ालिब’ का ख़राबा बेचता क्या है

हमारा ‘ग़ालिब’-ए-आज़म था चोर आक़ा-ए-‘बेदिल’ का

सो रिज़्क़-ए-फ़ख़्र अब हम खा रहे हैं ‘मीर’-ए-बिस्मिल का

सिधारत भी था शर्मिंदा कि दो-आबे का बासी था

तुम्हें मालूम है उर्दू जो है पाली से निकली है

वो गोया उस की ही इक पुर-नुमू डाली से निकली है

ये कड़वाहट की बातें हैं मिठास इन की पूछो तुम

नम-ए-लब को तरसती हैं सो प्यास इन की पूछो तुम

ये इक दो जुरओं की इक चुह्ल है और चुह्ल में क्या है

अवामुन्नास से पूछो भला अल-कुह्ल में क्या है

ये तअन-ओ-तंज़ की हर्ज़ा-सराई हो नहीं सकती

कि मेरी जान मेरे दिल से रिश्ता खो नहीं सकती

नशा चढ़ने लगा है और चढ़ना चाहिए भी था

अबस का निर्ख़ तो इस वक़्त बढ़ना चाहिए भी था

अजब बे-माजरा बे-तौर बेज़ाराना हालत है

वजूद इक वहम है और वहम ही शायद हक़ीक़त है

ग़रज़ जो हाल था वो नफ़्स के बाज़ार ही का था

है ”ज़” बाज़ार में तो दरमियाँ ‘ज़रयून’ में अव्वल

तो ये इब्राफ़नीक़ी खेलते हर्फ़ों से थे हर पल

तो ये ‘ज़रयून’ जो है क्या ये अफ़लातून है कोई

अमाँ ‘ज़रयून’ है ‘ज़रयून’ वो माजून क्यूँ होता

हैं माजूनें मुफ़ीद ”अर्वाह” को माजून यूँ होता

सुनो तफ़रीक़ कैसे हो भला अश्ख़ास अश्या में

बहुत जंजाल हैं पर हो यहाँ तो ”या” में और ”या” में

तुम्हारी जो हमासा है भला उस का तो क्या कहना

है शायद मुझ को सारी उम्र उस के सेहर में रहना

मगर मेरे ग़रीब अज्दाद ने भी कुछ किया होगा

बहुत टुच्चा सही उन का भी कोई माजरा होगा

ये हम जो हैं हमारी भी तो होगी कोई नौटंकी

हमारा ख़ून भी सच-मुच का सेहने पर बहा होगा

है आख़िर ज़िंदगी ख़ून अज़-बुन-ए-नाख़ुन बर-आवर-तर

क़यामत सानेहा मतलब क़यामत फ़ाजिआ परवर

नहीं हो तुम मिरे और मेरा फ़र्दा भी नहीं मेरा

सो मैं ने साहत-ए-दीरोज़ में डाला है अब डेरा

मिरे दीरोज़ में ज़हर-ए-हलाहल तेग़-ए-क़ातिल है

मिरे घर का वही सरनाम-तर है जो भी बिस्मिल है

गुज़श्त-ए-वक़्त से पैमान है अपना अजब सा कुछ

सो इक मामूल है इमरान के घर का अजब सा कुछ

‘हसन’ नामी हमारे घर में इक ‘सुक़रात’ गुज़रा है

वो अपनी नफ़्इ से इसबात तक माशर के पहुँचा है

कि ख़ून-ए-रायगाँ के अम्र में पड़ना नहीं हम को

वो सूद-ए-हाल से यकसर ज़ियाँ-काराना गुज़रा है

तलब थी ख़ून की क़य की उसे और बे-निहायत थी

सो फ़ौरन बिन्त-ए-अशअश का पिलाया पी गया होगा

वो इक लम्हे के अंदर सरमदिय्यत जी गया होगा

तुम्हारी अर्जुमंद अम्मी को मैं भूला बहुत दिन में

मैं उन की रंग की तस्कीन से निमटा बहुत दिन में

वही तो हैं जिन्हों ने मुझ को पैहम रंग थुकवाया

वो किस रग का लहू है जो मियाँ मैं ने नहीं थूका

लहू और थूकना उस का है कारोबार भी मेरा

यही है साख भी मेरी यही मेआर भी मेरा

मैं वो हूँ जिस ने अपने ख़ून से मौसम खिलाए हैं

न-जाने वक़्त के कितने ही आलम आज़माए हैं

मैं इक तारीख़ हूँ और मेरी जाने कितनी फ़सलें हैं

मिरी कितनी ही फ़रएँ हैं मिरी कितनी ही असलें हैं

हवादिस माजरा ही हम रहे हैं इक ज़माने से

शदायद सानेहा ही हम रहे हैं इक ज़माने से

हमेशा से बपा इक जंग है हम उस में क़ाएम हैं

हमारी जंग ख़ैर शर के बिस्तर की है ज़ाईदा

ये चर्ख़-ए-जब्र के दव्वार-ए-मुमकिन की है गिरवीदा

लड़ाई के लिए मैदान और लश्कर नहीं लाज़िम

सिनान गुर्ज़ शमशीर तबर ख़ंजर नहीं लाज़िम

बस इक एहसास लाज़िम है कि हम बुअदैन हैं दोनों

कि नफ़्इ-ए-ऐन-ए-ऐन सर-ब-सर ज़िद्दीन हैं दोनों

Luis-Urbina ने मेरी अजब कुछ ग़म-गुसारी की

ब-सद दिल दानिशी गुज़रान अपनी मुझ पे तारी की

बहुत उस ने पिलाई और पीने ही दी मुझ को

पलक तक उस ने मरने के लिए जीने दी मुझ को

”मैं तेरे इश्क़ में रंजीदा हूँ हाँ अब भी कुछ कुछ हूँ

मुझे तेरी ख़यानत ने ग़ज़ब मजरूह कर डाला

मगर तैश-ए-शदीदाना के ब’अद आख़िर ज़माने में

रज़ा की जाविदाना जब्र की नौबत भी पहुँची”

मोहब्बत एक पसपाई है पुर-अहवाल हालत की

मोहब्बत अपनी यक-तौरी में दुश्मन है मोहब्बत की

सुख़न माल-ए-मोहब्बत की दुकान-आराई करता है

सुख़न सौ तरह से इक रम्ज़ की रुस्वाई करता है

सुख़न बकवास है बकवास जो ठहरा है फ़न मेरा

वो है ताबीर का अफ़्लास जो ठहरा है फ़न मेरा

सुख़न यानी लबों का फ़न सुख़न-वर यानी इक पुर-फ़न

सुख़न-वर ईज़द अच्छा था कि आदम या फिर अहरीमन

मज़ीद आंकि सुख़न में वक़्त है वक़्त अब से अब यानी

कुछ ऐसा है ये मैं जो हूँ ये मैं अपने सिवा हूँ ”मैं”

सो अपने आप में शायद नहीं वाक़े हुआ हूँ मैं

जो होने में हो वो हर लम्हा अपना ग़ैर होता है

कि होने को तो होने से अजब कुछ बैर होता है

यूँही बस यूँही ‘ज़ेनू’ ने यकायक ख़ुद-कुशी कर ली

अजब हिस्स-ए-ज़राफ़त के थे मालिक ये रवाक़ी भी

बिदह यारा अज़ाँ बादा कि दहक़ाँ पर्वर्द आँ-रा

सोज़द हर मता-ए-इनतिमाए दूदमानां रा

ब-सोज़द ईं ज़मीन-ए-ए’तिबार-ओ-आस्मानां रा

ब-सोज़द जान दिल राहम बयासायद दिल जाँ रा

दिल जाँ और आसाइश ये इक कौनी तमस्ख़ुर है

हुमुक़ की अबक़रिय्यत है सफ़ाहत का तफ़क्कुर है

हुमुक़ की अबक़रिय्यत और सफ़ाहत के तफ़क्कुर ने

हमें तज़ई-ए-मोहलत के लिए अकवान बख़्शे हैं

और अफ़लातून-ए-अक़्दस ने हमें अ’यान बख़्शे हैं

सुनो ‘ज़रयून’ तुम तो ऐन-ए-अ’यान-ए-हक़ीक़त हो

नज़र से दूर मंज़र का सर-ओ-सामान-ए-सर्वत हो

हमारी उम्र का क़िस्सा हिसाब अंदोज़-ए-आनी है

ज़मानी ज़द में ज़न की इक गुमान-ए-लाज़िमानी है

गुमाँ ये है कि बाक़ी है बक़ा हर आन फ़ानी है

कहानी सुनने वाले जो भी हैं वो ख़ुद कहानी हैं

कहानी कहने वाला इक कहानी की कहानी है

पिया पे ये गदाज़िश ये गुमाँ और ये गिले कैसे

सिला-सोज़ी तो मेरा फ़न है फिर इस के सिले कैसे

तो मैं क्या कह रहा था यानी क्या कुछ सह रहा था मैं

अमाँ हाँ मेज़ पर या मेज़ पर से बह रहा था मैं

रुको मैं बे-सर-ओ-पा अपने सर से भाग निकला हूँ

इला या अय्युहल-अबजद ज़रा यानी ज़रा ठहरो

There is an absurd I इन absurdity शायद

कहीं अपने सिवा यानी कहीं अपने सिवा ठहरो

तुम इस absurdity में इक रदीफ़ इक क़ाफ़िया ठहरो

रदीफ़ क़ाफ़िया क्या हैं शिकस्त-ए-ना-रवा क्या है

शिकस्त-ए-नारवा ने मुझ को पारा पारा कर डाला

अना को मेरी बे-अंदाज़ा-तर बे-चारा कर डाला

मैं अपने आप में हारा हूँ और ख़्वाराना हारा हूँ

जिगर-चाकाना हारा हूँ दिल-अफ़गाराना हारा हूँ

जिसे फ़न कहते आए हैं वो है ख़ून-ए-जिगर अपना

मगर ख़ून-ए-जिगर क्या है वो है क़त्ताल-तर अपना

कोई ख़ून-ए-जिगर का फ़न ज़रा ताबीर में लाए

मगर मैं तो कहूँ वो पहले मेरे सामने आए

वजूद शेर ये दोनों define हो नहीं सकते

कभी मफ़्हूम में हरगिज़ ये काइन हो नहीं सकते

हिसाब-ए-हर्फ़ में आता रहा है बस हसब उन का

नहीं मालूम ईज़द ईज़दाँ को भी नसब उन का

है ईज़द ईज़दाँ इक रम्ज़ जो बे-रम्ज़ निस्बत है

मियाँ इक हाल है इक हाल जो बे-हाल-ए-हालत है

जाने जब्र है हालत कि हालत जब्र है यानी

किसी भी बात के मअनी जो हैं उन के हैं क्या मअनी

वजूद इक जब्र है मेरा अदम औक़ात है मेरी

जो मेरी ज़ात हरगिज़ भी नहीं वो ज़ात है मेरी

मैं रोज़-ओ-शब निगारिश-कोश ख़ुद अपने अदम का हूँ

मैं अपना आदमी हरगिज़ नहीं लौह-ओ-क़लम का हूँ

हैं कड़वाहट में ये भीगे हुए लम्हे अजब से कुछ

सरासर बे-हिसाबाना सरासर बे-सबब से कुछ

सराबों ने सराबों पर बहुत बादल हैं बरसाए

शराबों ने मआबद के तमूज़ बअल नहलाए

(यक़ीनन क़ाफ़िया है यावा-फ़रमाई का सर-चश्मा

”हैं नहलाए” ”हैं बरसाए”)

जाने आरिबा क्यूँ आए क्यूँ मुस्तारबा आए

मुज़िर के लोग तो छाने ही वाले थे सो वो छाए

मिरे जद हाशिम-ए-आली गए ग़़ज़्ज़ा में दफ़नाए

मैं नाक़े को पिलाऊँगा मुझे वाँ तक वो ले जाए

लिदू लिलमौती वबनू लिलहिज़ाबी सन ख़राबाती

वो मर्द-ए-ऊस कहता है हक़ीक़त है ख़ुराफ़ाती

ये ज़ालिम तीसरा पैग इक अक़ानीमी बिदायत है

उलूही हर्ज़ा-फ़रमाई का सिर्र-ए-तूर-ए-लुक्नत है

भला हूरब की झाड़ी का वो रम्ज़-ए-आतिशीं क्या था

मगर हूरब की झाड़ी क्या ये किस से किस की निस्बत है

ये निस्बत के बहुत से क़ाफ़िए हैं है गिला इस का

मगर तुझ को तो यारा! क़ाफ़ियों की बे-तरह लत है

गुमाँ ये है कि शायद बहर से ख़ारिज नहीं हूँ मैं

ज़रा भी हाल के आहंग में हारिज नहीं हूँ

तना-तन तन तना-तन तन तना-तन तन तना-तन तन

तना-तन तन नहीं मेहनत-कशों का तन पैराहन

पैराहन पूरी आधी रोटी अब रहा सालन

ये साले कुछ भी खाने को पाएँ गालियाँ खाएँ

है इन की बे-हिसी में तो मुक़द्दस-तर हरामी-पन

मगर आहंग मेरा खो गया शायद कहाँ जाने

कोई मौज-ए-… कोई मौज-ए-शुमाल-ए-जावेदाँ जाने

शुमाल-ए-जावेदाँ के अपने ही क़िस्से थे जो गुज़रे

वो हो गुज़रे तो फिर ख़ुद मैं ने भी जाना वो हो गुज़रे

शुमाल-ए-जावेदाँ अपना शुमाल-ए-जावेदान-ए-जाँ

है अब भी अपनी पूँजी इक मलाल-ए-जावेदान-ए-जाँ

नहीं मालूम ‘ज़रयून’ अब तुम्हारी उम्र क्या होगी

यही है दिल का मज़मून अब तुम्हारी उम्र क्या होगी

हमारे दरमियाँ अब एक बेजा-तर ज़माना है

लब-ए-तिश्ना पे इक ज़हर-ए-हक़ीक़त का फ़साना है

अजब फ़ुर्सत मयस्सर आई है ”दिल जान रिश्ते” को

दिल को आज़माना है जाँ को आज़माना है

कलीद-ए-किश्त-ज़ार-ए-ख़्वाब भी गुम हो गई आख़िर

कहाँ अब जादा-ए-ख़ुर्रम में सर-सब्ज़ाना जाना है

कहूँ तो क्या कहूँ मेरा ये ज़ख़्म-ए-जावेदाना है

वही दिल की हक़ीक़त जो कभी जाँ थी वो अब आख़िर

फ़साना दर फ़साना दर फ़साना दर फ़साना है

हमारा बाहमी रिश्ता जो हासिल-तर था रिश्तों का

हमारा तौर-ए-बे-ज़ारी भी कितना वालिहाना है

किसी का नाम लिक्खा है मिरी सारी बयाज़ों पर

मैं हिम्मत कर रहा हूँ यानी अब उस को मिटाना है

ये इक शाम-ए-अज़ाब-ए-बे-सरोकाराना हालत है

हुए जाने की हालत में हूँ बस फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है

नहीं मालूम तुम इस वक़्त किस मालूम में होगे

जाने कौन से मअनी में किस मफ़्हूम में होगे

मैं था मफ़्हूम ना-मफ़्हूम में गुम हो चुका हूँ मैं

मैं था मालूम ना-मालूम में गुम हो चुका हूँ मैं

नहीं मालूम ‘ज़रयून’ अब तुम्हारी उम्र क्या होगी

मिरे ख़ुद से गुज़रने के ज़माने से सिवा होगी

मिरे क़ामत से अब क़ामत तुम्हारा कुछ फ़ुज़ूँ होगा

मिरा फ़र्दा मिरे दीरोज़ से भी ख़ुश नुमूं होगा

हिसाब-ए-माह-ओ-साल अब तक कभी रक्खा नहीं मैं ने

किसी भी फ़स्ल का अब तक मज़ा चक्खा नहीं मैं ने

मैं अपने आप में कब रह सका कब रह सका आख़िर

कभी इक पल को भी अपने लिए सोचा नहीं मैं ने

हिसाब-ए-माह-ओ-साल रोज़-ओ-शब वो सोख़्ता-बूदश

मुसलसल जाँ-कनी के हाल में रखता भी तो कैसे

जिसे ये भी हो मालूम वो है भी तो क्यूँ-कर है

कोई हालत दिल-ए-पामाल में रखता भी तो कैसे

कोई निस्बत भी अब तो ज़ात से बाहर नहीं मेरी

कोई बिस्तर नहीं मेरा कोई चादर नहीं मेरी

ब-हाल-ए-ना-शिता सद-ज़ख़्म-हा ख़ून-हा ख़ूर्दम

ब-हर-दम शूकराँ आमेख़्ता माजून-हा ख़ूर्दम

तुम्हें इस बात से मतलब ही क्या और आख़िरश क्यूँ हो

किसी से भी नहीं मुझ को गिला और आख़िरश क्यूँ हो

जो है इक नंग-ए-हस्ती उस को तुम क्या जान भी लोगे

अगर तुम देख लो मुझ को तो क्या पहचान भी लोगे

तुम्हें मुझ से जो नफ़रत है वही तो मेरी राहत है

मिरी जो भी अज़िय्यत है वही तो मेरी लज़्ज़त है

कि आख़िर इस जहाँ का एक निज़ाम-ए-कार है आख़िर

जज़ा का और सज़ा का कोई तो हंजार है आख़िर

मैं ख़ुद में झेंकता हूँ और सीने में भड़कता हूँ

मिरे अंदर जो है इक शख़्स मैं उस में फड़कता हूँ

है मेरी ज़िंदगी अब रोज़-ओ-शब यक-मज्लिस-ए-ग़म-हा

अज़ा-हा मर्सिया-हा गिर्या-हा आशोब-ए-मातम-हा

तुम्हारी तर्बियत में मेरा हिस्सा कम रहा कम-तर

ज़बाँ मेरी तुम्हारे वास्ते शायद कि मुश्किल हो

ज़बाँ अपनी ज़बाँ मैं तुम को आख़िर कब सिखा पाया

अज़ाब-ए-सद-शमातत आख़िरश मुझ पर ही नाज़िल हो

ज़बाँ का काम यूँ भी बात समझाना नहीं होता

समझ में कोई भी मतलब कभी आना नहीं होता

कभी ख़ुद तक भी मतलब कोई पहुंचाना नहीं होता

गुमानों के गुमाँ की दम-ब-दम आशोब-कारी है

भला क्या ए’तिबारी और क्या ना-ए’तिबारी है

गुमाँ ये है भला में जुज़ गुमाँ क्या था गुमानों में

सुख़न ही क्या फ़सानों का धरा क्या है फ़सानों में

मिरा क्या तज़्किरा और वाक़ई क्या तज़्किरा मेरा

मैं इक अफ़्सोस था अफ़्सोस हूँ गुज़रे ज़मानों में

है शायद दिल मिरा बे-ज़ख़्म और लब पर नहीं छाले

मिरे सीने में कब सोज़िंदा-तर दाग़ों के हैं थाले

मगर दोज़ख़ पिघल जाए जो मेरे साँस अपना ले

तुम अपनी माम के बेहद मुरादी मिन्नतों वाले

मिरे कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं बाले

मगर पहले कभी तुम से मिरा कुछ सिलसिला तो था

गुमाँ में मेरे शायद इक कोई ग़ुंचा खिला तो था

वो मेरी जावेदाना बे-दुई का इक सिला तो था

सो उस को एक अब्बू नाम का घोड़ा मिला तो था

साया-ए-दामान-ए-रहमत चाहिए थोड़ा मुझे

मैं छोड़ूँ या नबी तुम ने अगर छोड़ा मुझे

ईद के दिन मुस्तफ़ा से यूँ लगे कहने ‘हुसैन’

सब्ज़ जोड़ा दो ‘हसन’ को सुर्ख़ दो जोड़ा मुझे

”अदब अदब कुत्ते तिरे कान काटूँ

‘ज़रयून’ के ब्याह के नान बाटूँ”

तारों भरे जगर जगर ख़्वान बाटूँ

”आ जा री निन्दिया तू क्यूँ जा

‘ज़रयून’ को के सुला क्यूँ जा”

तुम्हारे ब्याह में शजरा पढ़ा जाना था नौशा वास्ती दूल्हा

”चौकी आँगन में बिछी वास्ती दूल्हा के लिए”

मक्के मदीने के पाक मुसल्ले पयम्बर घर नवासे

शाह-ए-मर्दां अमीर-ऊल-मोमिनीन हज़रत-‘अली’ के पोते

हज़रत इमाम-‘हसन’ हज़रत इमाम-‘हुसैन’ के पोते

हज़रत इमाम-अली-‘नक़ी’ के पोते

सय्यद-‘जाफ़र’ सानी के पोते

सय्यद अबुल-फ़रह सैदवाइल-वास्ती के पोते

मीराँ सय्यद-‘अली’-बुज़ुर्ग के पोते

सय्यद-‘हुसैन’-शरफ़ुद्दीन शाह-विलायत के पोते

क़ाज़ी सय्यद-‘अमीर’-अली के पोते

दीवान सय्यद-‘हामिद’ के पोते

अल्लामा सय्यद-‘शफ़ीक़’-हसन-एलिया के पोते

सय्यद-‘जौन’-एलिया हसनी-उल-हुसैनी सपूत-जाह”

मगर नाज़िर हमारा सोख़्ता-सुल्ब आख़िरी नस्साब अब मरने ही वाला है

बस इक पल हफ़ सदी का फ़ैसला करने ही वाला है

सुनो ‘ज़रयून’ बस तुम ही सुनो यानी फ़क़त तुम ही

वही राहत में है जो आम से होने को अपना ले

कभी कोई भी पर हो कोई ‘बहमन’ यार या ‘ज़ेनू’

तुम्हें बहका पाए और बैरूनी कर डाले

मैं सारी ज़िंदगी के दुख भुगत कर तुम से कहता हूँ

बहुत दुख देगी तुम में फ़िक्र और फ़न की नुमू मुझ को

तुम्हारे वास्ते बेहद सहूलत चाहता हूँ मैं

दवाम-ए-जहल हाल-ए-इस्तिराहत चाहता हूँ मैं

देखो काश तुम वो ख़्वाब जो देखा किया हूँ मैं

वो सारे ख़्वाब थे क़स्साब जो देखा किया हूँ मैं

ख़राश-ए-दिल से तुम बे-रिश्ता बे-मक़्दूर ही ठहरो

मिरे जहमीम-ए-ज़ात-ए-ज़ात से तुम दूर ही ठहरो

कोई ‘ज़रयून’ कोई भी क्लर्क और कोई कारिंदा

कोई भी बैंक का अफ़सर सेनेटर कोई पावंदा

हर इक हैवान-ए-सरकारी को टट्टू जानता हूँ मैं

सो ज़ाहिर है इसे शय से ज़ियादा मानता हूँ मैं

तुम्हें हो सुब्ह-दम तौफ़ीक़ बस अख़बार पढ़ने की

तुम्हें काश बीमारी हो दीवार पढ़ने की

अजब है ‘सार्त्र’ और ‘रसेल’ भी अख़बार पढ़ते थे

वो मालूमात के मैदान के शौक़ीन बूढ़े थे

नहीं मालूम मुझ को आम शहरी कैसे होते हैं

वो कैसे अपना बंजर नाम बंजर-पन में बोते हैं

मैं ”उर्र” से आज तक इक आम शहरी हो नहीं पाया

इसी बाइस मैं हूँ अम्बोह की लज़्ज़त से बे-माया

मगर तुम इक दो-पाया रास्त क़ामत हो के दिखलाना

सुनो राय-दहिंदा बिन हुए तुम बाज़ मत आना

फ़क़त ‘ज़रयून’ हो तुम यानी अपना साबिक़ा छोड़ो

फ़क़त ‘ज़रयून’ हो तुम यानी अपना लाहिक़ा छोड़ो

मगर मैं कौन जो चाहूँ तुम्हारे बाब में कुछ भी

भला क्यूँ हो मिरे एहसास के अस्बाब में कुछ भी

तुम्हारा बाप यानी मैं अबस मैं इक अबस-तर मैं

मगर मैं यानी जाने कौन अच्छा मैं सरासर मैं

मैं कासा-बाज़ कीना-साज़ कासा-तन हूँ कुत्ता हूँ

मैं इक नंगीन-ए-बूदश हूँ तुम तो सिर्र-ए-मुनअम हो

तुम्हारा बाप रूहुल-क़ुद्स था तुम इब्न-ए-मरयम हो

ये क़ुलक़ुल तीसरा पैग अब तो चौथा हो गुमाँ ये है

गुमाँ का मुझ से कोई ख़ास रिश्ता हो गुमाँ ये है

गुमाँ ये है कि मैं जो जा रहा था रहा हूँ मैं

मगर मैं रहा कब हूँ पियापे जा रहा हूँ मैं

ये चौथा पैग है ऊँ-हूँ ज़लालत की गई मुझ से

ज़लालत की गई मुझ से ख़यानत की गई मुझ से

जोज़ामी हो गई ‘वज़्ज़ाह’ की महबूब वावैला

मगर इस का गिला क्या जब नहीं आया कोई एेला

सुनो मेरी कहानी पर मियाँ मेरी कहानी क्या

मैं यकसर राइगानी हूँ हिसाब-ए-राइगानी क्या

बहुत कुछ था कभी शायद पर अब कुछ भी नहीं हूँ मैं

अपना हम-नफ़स हूँ मैं अपना हम-नशीं हूँ मैं

कभी की बात है फ़रियाद मेरा वो कभी यानी

नहीं इस का कोई मतलब नहीं इस के कोई मअनी

मैं अपने शहर का सब से गिरामी नाम लड़का था

मैं बे-हंगाम लड़का था मैं सद-हंगाम लड़का था

मिरे दम से ग़ज़ब हंगामा रहता था मोहल्लों में

मैं हश्र-आग़ाज़ लड़का था मैं हश्र-अंजाम लड़का था

मिरे हिन्दू मुसलमाँ सब मुझे सर पर बिठाते थे

उन्ही के फ़ैज़ से मअनी मुझे मअनी सिखाते थे

सुख़न बहता चला आता है बे-बाइस के होंटों से

वो कुछ कहता चला आता है बे-बाइस के होंटों से

मैं अशराफ़-ए-कमीना-कार को ठोकर पे रखता था

सो मैं मेहनत-कशों की जूतियाँ मिम्बर पे रखता था

मैं शायद अब नहीं हूँ वो मगर अब भी वही हूँ मैं

ग़ज़ब हंगामा-परवर ख़ीरा-सरा अब भी वही हूँ मैं

मगर मेरा था इक तौर और भी जो और ही कुछ था

मगर मेरा था इक दौर और भी जो और ही कुछ था

मैं अपने शहर-ए-इल्म-ओ-फ़न का था इक नौजवाँ काहिन

मिरे तिल्मीज़-ए-इल्म-ओ-फ़न मिरे बाबा के थे हम-सिन

मिरा बाबा मुझे ख़ामोश आवाज़ें सुनाता था

वो अपने-आप में गुम मुझ को पुर-हाली सिखाता था

वो हैअत-दाँ वो आलिम नाफ़-ए-शब में छत पे जाता था

रसद का रिश्ता सय्यारों से रखता था निभाता था

उसे ख़्वाहिश थी शोहरत की कोई हिर्स-ए-दौलत थी

बड़े से क़ुत्र की इक दूरबीन उस की ज़रूरत थी

मिरी माँ की तमन्नाओं का क़ातिल था वो क़ल्लामा

मिरी माँ मेरी महबूबा क़यामत की हसीना थी

सितम ये है ये कहने से झिजकता था वो फ़ह्हामा

था बेहद इश्तिआल-अंगेज़ बद-क़िस्मत अल्लामा

ख़लफ़ उस के ख़ज़फ़ और बे-निहायत ना-ख़लफ़ निकले

हम उस के सारे बेटे इंतिहाई बे-शरफ़ निकले

मैं उस आलिम-तरीन-ए-दहर की फ़िक्रत का मुनकिर था

मैं फ़सताई था जाहिल था और मंतिक़ का माहिर था

पर अब मेरी ये शोहरत है कि मैं बस इक शराबी हूँ

मैं अपने दूदमान-ए-इल्म की ख़ाना-ख़राबी हूँ

सगान-ए-ख़ूक ज़ाद-ए-बर्ज़न बाज़ार-ए-बे-मग़्ज़ी

मिरी जानिब अब अपने थोबड़े शाहाना करते हैं

ज़िना-ज़ादे मिरी इज़्ज़त भी गुस्ताख़ाना करते हैं

कमीने शर्म भी अब मुझ से बे-शर्माना करते थे

मुझे इस शाम है अपने लबों पर इक सुख़न लाना

‘अली’ दरवेश था तुम उस को अपना जद्द बतलाना

वो सिब्तैन-ए-मोहम्मद, जिन को जाने क्यूँ बहुत अरफ़ा

तुम उन की दूर की निस्बत से भी यकसर मुकर जाना

कि इस निस्बत से ज़हर ज़ख़्म को सहना ज़रूरी है

अजब ग़ैरत से ग़ल्तीदा-ब-ख़ूँ रहना ज़रूरी है

वो शजरा जो कनाना फहर ग़ालिब कअब मर्रा से

क़ुसइ हाशिम शेबा अबू-तालिब तक आता था

वो इक अंदोह था तारीख़ का अंदोह-ए-सोज़िंदा

वो नामों का दरख़्त-ए-ज़र्द था और उस की शाख़ों को

किसी तन्नूर के हैज़म की ख़ाकिस्तर ही बनना था

उसे शोला-ज़दा बूदश का इक बिस्तर ही बनना था

हमारा फ़ख़्र था फ़क़्र और दानिश अपनी पूँजी थी

नसब-नामों के हम ने कितने ही परचम लपेटे हैं

मिरे हम-शहर ‘ज़रयून’ इक फ़ुसूँ है नस्ल, हम दोनों

फ़क़त आदम के बेटे हैं फ़क़त आदम के बेटे हैं

मैं जब औसान अपने खोने लगता हूँ तो हँसता हूँ

मैं तुम को याद कर के रोने लगता हूँ तो हँसता हूँ

हमेशा मैं ख़ुदा हाफ़िज़ हमेशा मैं ख़ुदा हाफ़िज़

ख़ुदा हाफ़िज़

ख़ुदा हाफ़िज़

nahīñ ma.alūm ‘zaryūn’ ab tumhārī umr kyā hogī

vo kin ḳhvāboñ se jaane āshnā nā-āshnā hogī

tumhāre dil ke is duniyā se kaise silsile hoñge

tumheñ kaise gumāñ hoñge tumheñ kaise gile hoñge

tumhārī sub.h jaane kin ḳhayāloñ se nahātī ho

tumhārī shaam jaane kin malāloñ se nibhātī ho

na jaane kaun doshīza tumhārī zindagī hogī

na jaane us kyā bāyastagī shā.istagī hogī

use tum phone karte aur ḳhat likhte rahe hoge

na jaane tum ne kitnī kam ġhalat urdu likhī hogī

ye ḳhat likhnā to daqyānūs pīḌhī qissa hai

ye sinf-e-nasr ham nā-bāliġhoñ ke fan hissa hai

vo hañstī ho to shāyad tum na rah paate ho hāloñ meñ

gaḌhā nanhā paḌ jaatā ho shāyad us ke gāloñ meñ

gumāñ ye hai tumhārī bhī rasā.ī nā-rasā.ī ho

vo aa.ī ho tumhāre paas lekin aa na paa.ī ho

vo shāyad mā.ide gand biryānī na khātī ho

vo nān-e-be-ḳhamīr-e-maida kam-tar chabātī ho

vo doshīza bhī shāyad dāstānoñ ho dil-dāda

use ma.alūm hogā ‘zāl’ thā ‘sohrāb’ daadā

tahamtan ya.anī ‘rustam’ thā girāmī ‘sām’ vāris

girāmī ‘sām’ thā sulb-e-nar-e-‘mānī’ ḳhush-zāda

(ye merī ek ḳhvāhish hai jo mushkil hai)

vo ‘najm’-āfañdi-e-marhūm ko to jāntī hogī

vo nauhoñ ke adab tarz to pahchāntī hogī

use kad hogī shāyad un sabhī se jo lapāḌī hoñ

na hoñge ḳhvāb us jo gavayye aur khilāḌī hoñ

hadaf hoñge tumhārā kaun tum kis ke hadaf hoge

na jaane vaqt paikār meñ tum kis taraf hoge

hai ran ye zindagī ik ran jo barpā lamha lamha hai

hameñ is ran meñ kuchh bhī ho kisī jānib to honā hai

so ham bhī is nafas tak haiñ sipāhī ek lashkar ke

hazāroñ saal se jiite chale aa.e haiñ mar mar ke

shuhūd ik fan hai aur merī adāvat be-fanoñ se hai

mirī paikār azal se

ye ‘ḳhusro’ ‘mīr’ ‘ġhālib’ ḳharāba bechtā kyā hai

hamārā ‘ġhālib’-e-āzam thā chor āqa-e-‘bedil’

so rizq-e-faḳhr ab ham khā rahe haiñ ‘mīr’-e-bismil

sidhārat bhī thā sharminda ki do-ābe baasī thā

tumheñ ma.alūm hai urdu jo hai paalī se niklī hai

vo goyā us ik pur-numū Daalī se niklī hai

ye kaḌvāhaT bāteñ haiñ miThās in na pūchho tum

nam-e-lab ko tarastī haiñ so pyaas in na pūchho tum

ye ik do jur.oñ ik chuhl hai aur chuhl meñ kyā hai

avāmunnās se pūchho bhalā al-kuhl meñ kyā hai

ye ta.an-o-tanz harza-sarā.ī ho nahīñ saktī

ki merī jaan mere dil se rishta kho nahīñ saktī

nasha chaḌhne lagā hai aur chaḌhnā chāhiye bhī thā

abas nirḳh to is vaqt baḌhnā chāhiye bhī thā

ajab be-mājrā be-taur be-zārāna hālat hai

vajūd ik vahm hai aur vahm shāyad haqīqat hai

ġharaz jo haal thā vo nafs ke bāzār thā

hai ”ze” bāzār meñ to darmiyāñ ‘zaryūn’ meñ avval

to ye ibrāfanīqī khelte harfoñ se the har pal

to ye ‘zaryūn’ jo hai kyā ye aflātūn hai koī

amaañ ‘zaryūn’ hai ‘zaryūn’ vo ma.ajūn kyuuñ hotā

haiñ ma.ajūneñ mufīd ”arvāh” ko ma.ajūn yuuñ hotā

suno tafrīq kaise ho bhalā ashḳhās o ashyā meñ

bahut janjāl haiñ par ho yahāñ to ”yā” meñ aur ”yā” meñ

tumhārī jo hamāsa hai bhalā us to kyā kahnā

hai shāyad mujh ko saarī umr us ke sehr meñ rahnā

magar mere ġharīb ajdād ne bhī kuchh kiyā hogā

bahut tuchchā sahī un bhī koī mājrā hogā

ye ham jo haiñ hamārī bhī to hogī koī nauTañkī

hamārā ḳhuun bhī sach-much sehne par bahā hogā

hai āḳhir zindagī ḳhuun az-bun-e-nāḳhun bar-āvar-tar

qayāmat sāneha matlab qayāmat fāje.a parvar

nahīñ ho tum mire aur merā fardā bhī nahīñ merā

so maiñ ne sāhat-e-dīroz meñ Daalā hai ab Derā

mire dīroz meñ zahr-e-halāhal teġh-e-qātil hai

mire ghar vahī sarnām-tar hai jo bhī bismil hai

guzasht-e-vaqt se paimān hai apnā ajab kuchh

so ik ma.amūl hai imrān ke ghar ajab kuchh

‘hasan’ naamī hamāre ghar meñ ik ‘suqrāt’ guzrā hai

vo apnī naf.i se isbāt tak ma.ashar ke pahuñchā hai

ki ḳhūn-e-rā.egāñ ke amr meñ paḌnā nahīñ ham ko

vo sūd-e-hāl se yaksar ziyāñ-kārāna guzrā hai

talab thī ḳhuun qai use aur be-nihāyat thī

so fauran bint-e-ash.ash pilāyā gayā hogā

vo ik lamhe ke andar sarmadiyyat gayā hogā

tumhārī arjumand ammī ko maiñ bhūlā bahut din meñ

maiñ un rañg taskīn se nimTā bahut din meñ

vahī to haiñ jinhoñ ne mujh ko paiham rañg thukvāyā

vo kis rag lahū hai jo miyāñ maiñ ne nahīñ thūkā

lahū aur thūknā us hai kārobār bhī merā

yahī hai saakh bhī merī yahī me.aar bhī merā

maiñ vo huuñ jis ne apne ḳhuun se mausam khilā.e haiñ

na-jāne vaqt ke kitne aalam āzmā.e haiñ

maiñ ik tārīḳh huuñ aur merī jaane kitnī fasleñ haiñ

mirī kitnī fareñ haiñ mirī kitnī asleñ haiñ

havādis mājrā ham rahe haiñ ik zamāne se

shadā.ed sāneha ham rahe haiñ ik zamāne se

hamesha se bapā ik jañg hai ham us meñ qaa.em haiñ

hamārī jañg ḳhair o shar ke bistar hai zā.ida

ye charḳh-e-jabr ke davvār-e-mumkin hai girvīda

laḌā.ī ke liye maidān aur lashkar nahīñ lāzim

sinān o gurz o shamshīr o tabar ḳhanjar nahīñ lāzim

bas ik ehsās lāzim hai ki ham buadain haiñ donoñ

ki nafi-e-ain-e-ain o sar-ba-sar ziddain haiñ donoñ

luis-urbina ne merī ajab kuchh ġham-gusārī

ba-sad dil dānishī guzrān apnī mujh pe taarī

bahut us ne pilā.ī aur piine na mujh ko

palak tak us ne marne ke liye jiine na mujh ko

”maiñ tere ishq meñ ranjīda huuñ haañ ab bhī kuchh kuchh huuñ

mujhe terī ḳhayānat ne ġhazab majrūh kar Daalā

magar taish-e-shadīdāna ke ba.ad āḳhir zamāne meñ

razā jāvidāna jabr naubat bhī aa pahuñchī”

mohabbat ek paspā.ī hai pur-ahvāl hālat

mohabbat apnī yak-taurī meñ dushman hai mohabbat

suḳhan māl-e-mohabbat dukān-ārā.ī kartā hai

suḳhan sau tarah se ik ramz rusvā.ī kartā hai

suḳhan bakvās hai bakvās jo Thahrā hai fan merā

vo hai ta.abīr aflās jo Thahrā hai fan merā

suḳhan ya.anī laboñ fan suḳhan-var ya.anī ik pur-fan

suḳhan-var iizad achchhā thā ki aadam phir ahriman

mazīd aañkī suḳhan meñ vaqt hai vaqt ab se ab ya.anī

kuchh aisā hai ye maiñ jo huuñ ye maiñ apne sivā huuñ ”maiñ”

so apne aap meñ shāyad nahīñ vaaq.e huā huuñ maiñ

jo hone meñ ho vo har lamha apnā ġhair hotā hai

ki hone ko to hone se ajab kuchh bair hotā hai

yūñhī bas yūñhī ‘zenū’ ne yakāyak ḳhud-kushī kar

ajab hiss-e-zarāfat ke the mālik ye ravāqī bhī

bidah yaarā azaañ baada ki dahqāñ parvard āñ-rā

ba sozad har mata-e-intimā.e dūdmānañ

ba-sozad iiñ zamīn-e-e’tibār-o-āsmānāñ

ba-sozad jaan o dil rāham bayāsāyad dil o jaañ

dil o jaañ aur āsā.ish ye ik kaunī tamasḳhur hai

humuq abqariyyat hai safāhat tafakkur hai

humuq abqariyyat aur safāhat ke tafakkur ne

hameñ taz.ī-e-mohlat ke liye akvān baḳhshe haiñ

aur aflātūn-e-aqdas ne hameñ āyān baḳhshe haiñ

suno ‘zaryūn’ tum to ain-e-a.ayān-e-haqīqat ho

nazar se duur manzar sar-o-sāmān-e-sarvat ho

hamārī umr qissa hisāb andoz-e-ānī hai

zamānī zad meñ zan ik gumān-e-lāzimānī hai

gumāñ ye hai ki baaqī hai baqā har aan faanī hai

kahānī sunñe vaale jo bhī haiñ vo ḳhud kahānī haiñ

kahānī kahne vaalā ik kahānī kahānī hai

piyā pe ye gudāzish ye gumāñ aur ye gile kaise

sila-sozī to merā fan hai phir is ke sile kaise

to maiñ kyā kah rahā thā ya.anī kyā kuchh sah rahā thā maiñ

amaañ haañ mez par mez par se bah rahā thā maiñ

ruko maiñ be-sar-o-pā apne sar se bhaag niklā huuñ

ilā ayyuhal-abjad zarā ya.anī zarā Thahro

There is an absurd i in absurdity shāyad

kahīñ apne sivā ya.anī kahīñ apne sivā Thahro

tum is absurdity meñ ik radīf ik qāfiya Thahro

radīf o qāfiya kyā haiñ shikast-e-nā-ravā kyā hai

shikast-e-nāravā ne mujh ko paara paara kar Daalā

anā ko merī be-andāza-tar be-chāra kar Daalā

maiñ apne aap meñ haarā huuñ aur ḳhvārāna haarā huuñ

jigar-chākāna haarā huuñ dil-afgārāna haarā huuñ

jise fan kahte aa.e haiñ vo hai ḳhūn-e-jigar apnā

magar ḳhūn-e-jigar kyā hai vo hai kattāl-tar apnā

koī ḳhūn-e-jigar fan zarā ta.abīr meñ laa.e

magar maiñ to kahūñ vo pahle mere sāmne aa.e

vajūd o sher ye donoñ define ho nahīñ sakte

kabhī mafhūm meñ hargiz ye kaa.in ho nahīñ sakte

hisāb-e-harf meñ aatā rahā hai bas hasab un

nahīñ ma.alūm iizad īzdāñ ko bhī nasab un

hai iizad īzdāñ ik ramz jo be-ramz nisbat hai

miyāñ ik haal hai ik haal jo be-hāl-e-hālat hai

na jaane jabr hai hālat ki hālat jabr hai ya.anī

kisī bhī baat ke ma.anī jo haiñ un ke haiñ kyā ma.anī

vajūd ik jabr hai merā adam auqāt hai merī

jo merī zaat hargiz bhī nahīñ vo zaat hai merī

maiñ roz-o-shab nigārish-kosh ḳhud apne adam huuñ

maiñ apnā aadmī hargiz nahīñ lauh-o-qalam huuñ

haiñ kaḌvāhaT meñ ye bhīge hue lamhe ajab se kuchh

sarāsar be-hisābānā sarāsar be-sabab se kuchh

sarāboñ ne sarāboñ par bahut bādal haiñ barsā.e

sharāboñ ne ma.ābad ke tamūz o ba.al nahlā.e

(yaqīnan qāfiya hai yāvā-farmā.ī sar-chashma

”haiñ nahlā.e” ”haiñ barsā.e”)

na jaane āriba kyuuñ aa.e kyuuñ musta.araba aa.e

muzir ke log to chhāne vaale the so vo chhā.e

mire jad hāshim-e-ālī ga.e gazza meñ dafnā.e

maiñ naaqe ko pilā.ūñgā mujhe vaañ tak vo le jaa.e

lidū lilmauti vabnū lilhizābi san ḳharābātī

vo mard-e-ūs kahtā hai haqīqat hai ḳhurāfātī

ye zālim tīsrā paig ik aqānīmī bidāyat hai

ulūhī harzā-farmā.ī sirr-e-tūr-e-luknat hai

bhalā hūrab jhāḌī vo ramz-e-ātishīñ kyā thā

magar hūrab jhāḌī kyā ye kis se kis nisbat hai

ye nisbat ke bahut se qāfiye haiñ hai gilā is

magar tujh ko to yārā! qāfiyoñ be-tarah lat hai

gumāñ ye hai ki shāyad bahr se ḳhārij nahīñ huuñ maiñ

zarā bhī haal ke āhañg meñ hārij nahīñ huuñ

tanā-tan tan tanā-tan tan tanā-tan tan tanā-tan tan

tanā-tan tan nahīñ mehnat-kashoñ tan na pairāhan

na pairāhan na puurī aadhī roTī ab rahā sālan

ye saale kuchh bhī khāne ko na paa.eñ gāliyāñ khā.eñ

hai in be-hisī meñ to muqaddas-tar harāmī-pan

magar āhañg merā kho gayā shāyad kahāñ jaane

koī mauj-e-… koī mauj-e-shumāl-e-jāvedāñ jaane

shumāl-e-jāvedāñ ke apne qisse the jo guzre

vo ho guzre to phir ḳhud maiñ ne bhī jaanā vo ho guzre

shumāl-e-jāvedāñ apnā shumāl-e-jāvedān-e-jāñ

hai ab bhī apnī pūñjī ik malāl-e-jāvedān-e-jāñ

nahīñ ma.alūm ‘zayūn’ ab tumhārī umr kyā hogī

yahī hai dil mazmūn ab tumhārī umr kyā hogī

hamāre darmiyāñ ab ek bejā-tar zamāna hai

lab-e-tishna pe ik zahr-e-haqīqat fasāna hai

ajab fursat mayassar aa.ī hai ”dil jaan rishte” ko

na dil ko āzmānā hai na jaañ ko āzmānā hai

kalīd-e-kisht-zār-e-ḳhvāb bhī gum ho ga.ī āḳhir

kahāñ ab jāda-e-ḳhurram meñ sar-sabzāna jaanā hai

kahūñ to kyā kahūñ merā ye zaḳhm-e-jāvedāna hai

vahī dil haqīqat jo kabhī jaañ thī vo ab āḳhir

fasāna dar fasāna dar fasāna dar fasāna hai

hamārā bāhamī rishta jo hāsil-tar thā rishtoñ

hamārā taur-e-be-zārī bhī kitnā vālihāna hai

kisī naam likkhā hai mirī saarī bayāzoñ par

maiñ himmat kar rahā huuñ ya.anī ab us ko miTānā hai

ye ik shām-e-azāb-e-be-sarokāna hālat hai

hue jaane hālat meñ huuñ bas fursat fursat hai

nahīñ ma.alūm tum is vaqt kis ma.alūm meñ hoge

na jaane kaun se ma.anī meñ kis mafhūm meñ hoge

maiñ thā mafhūm nā-mafhūm meñ gum ho chukā huuñ maiñ

maiñ thā ma.alūm nā-mālūm meñ gum ho chukā huuñ maiñ

nahīñ ma.alūm ‘zaryūn’ ab tumhārī umr kyā hogī

mire ḳhud se guzarne ke zamāne se sivā hogī

mire qāmat se ab qāmat tumhārā kuchh fuzūñ hogā

mirā fardā mire dīroz se bhī ḳhush numūñ hogā

hisāb-e-māh-o-sāl ab tak kabhī rakkhā nahīñ maiñ ne

kisī bhī fasl ab tak maza chakkhā nahīñ maiñ ne

maiñ apne aap meñ kab rah sakā kab rah sakā āḳhir

kabhī ik pal ko bhī apne liye sochā nahīñ maiñ ne

hisāb-e-māh-o-sāl o roz-o-shab vo soḳhta-būdash

musalsal jāñ-kanī ke haal meñ rakhtā bhī to kaise

jise ye bhī na ho ma.alūm vo hai bhī to kyūñ-kar hai

koī hālat dil-e-pāmāl meñ rakhtā bhī to kaise

koī nisbat bhī ab to zaat se bāhar nahīñ merī

koī bistar nahīñ merā koī chādar nahīñ merī

ba-hāl-e-nā-shitā sad-zaḳhm-hā o ḳhūn-hā ḳhūdam

ba-har-dam shukarāñ āmeḳhta ma.ajūn-hā ḳhūdam

tumheñ is baat se matlab kyā aur āḳhirash kyuuñ ho

kisī se bhī nahīñ mujh ko gila aur āḳhirash kyuuñ ho

jo hai ik nañg-e-hastī us ko tum kyā jaan bhī loge

agar tum dekh lo mujh ko to kyā pahchān bhī loge

tumheñ mujh se jo nafrat hai vahī to merī rāhat hai

mirī jo bhī aziyyat hai vahī to merī lazzat hai

ki āḳhir is jahāñ ek nizām-e-kār hai āḳhir

jazā aur sazā koī to hanjār hai āḳhir

maiñ ḳhud meñ jheñktā huuñ aur siine meñ bhaḌaktā huuñ

mire andar jo hai ik shaḳhs maiñ us meñ phaḌaktā huuñ

hai merī zindagī ab roz-o-shab yak-majlis-e-ġham-hā

azā-hā marsiya-hā girya-hā āshob-e-mātam-hā

tumhārī tarbiyat meñ merā hissa kam rahā kam-tar

zabāñ merī tumhāre vāste shāyad ki mushkil ho

zabāñ apnī zabāñ maiñ tum ko āḳhir kab sikhā paayā

azāb-e-sad-shamātat āḳhirash mujh par nāzil ho

zabāñ kaam yuuñ bhī baat samjhānā nahīñ hotā

samajh meñ koī bhī matlab kabhī aanā nahīñ hotā

kabhī ḳhud tak bhī matlab koī pahuñchānā nahīñ hotā

gumānoñ ke gumāñ dam-ba-dam āshob-kārī hai

bhalā kyā e’tibārī aur kyā nā-e’tibārī hai

gumāñ ye hai bhalā meñ juz gumāñ kyā thā gumānoñ meñ

suḳhan kyā fasānoñ dharā kyā hai fasānoñ meñ

mirā kyā tazkira aur vāqa.ī kyā tazkira merā

maiñ ik afsos thā afsos huuñ guzre zamānoñ meñ

hai shāyad dil mirā be-zaḳhm aur lab par nahīñ chhāle

mire siine meñ kab sozinda-tar dāġhoñ ke haiñ thāle

magar dozaḳh pighal jaa.e jo mere saañs apnā le

tum apnī maam ke behad murādī minnatoñ vaale

mire kuchh bhī nahīñ kuchh bhī nahīñ kuchh bhī nahīñ baale

magar pahle kabhī tum se mirā kuchh silsila to thā

gumāñ meñ mere shāyad ik koī ġhuncha khilā to thā

vo merī jāvedāna be-duī ik sila to thā

so us ko ek abbū naam ghoḌā milā to thā

sāya-e-dāmān-e-rahmat chāhiye thoḌā mujhe

maiñ na chhoḌūñ nabī tum ne agar chhoḌā mujhe

iid ke din mustafā se yuuñ lage kahne ‘husain’

sabz joḌā do ‘hasan’ ko surḳh do joḌā mujhe

”adab adab kutte tire kaan kāTūñ

‘zaryūn’ ke byaah ke naan bāTūñ”

tāroñ bhare jagar jagar ḳhvān bāTūñ

”ā nindiyā aa kyuuñ na

‘zaryūn’ ko aa ke sulā kyuuñ na jaa”

tumhāre byaah meñ shajara paḌhā jaanā thā nausha vāstī dūlhā

”chaukī āñgan meñ bichhī vāstī dūlhā ke liye”

makke madīne ke paak musalle payambar ghar navāse

shāh-e-mardāñ amīrul-maminīn hazrat-‘alī’ ke pote

hazrat imām-‘hasan’ hazrat imām-‘husain’ ke pote

hazrat imām-alī-‘naqī’ ke pote

sayyad-‘jāfar’ saanī ke pote

sayyad abul-farah saidvāil-vāstī ke pote

mīrāñ sayyad-‘alī’-buzurg ke pote

sayyad-‘husain’-sharfuddīn shāh-vilāyat ke pote

qaazī sayyad-‘amīr’-alī ke pote

dīvān sayyad-‘hāmid’ ke pote

allāma sayyad-shafīq-‘hasan’-eliyā ke pote

sayyad-‘jaun’-eliyā hasani-ul-husainī sapūt-jāh”

magar nāzir hamārā soḳhta-sulb āḳhirī nassāb ab marne vaalā hai

bas ik pal haf sadī faisla karne vaalā hai

suno ‘zaryūn’ bas tum suno ya.anī faqat tum

vahī rāhat meñ hai jo aam se hone ko apnā le

kabhī koī bhī par ho koī ‘bahman’ yaar ‘zenū’

tumheñ bahkā na paa.e aur bairūnī na kar Daale

maiñ saarī zindagī ke dukh bhugat kar tum se kahtā huuñ

bahut dukh degī tum meñ fikr aur fan numū mujh ko

tumhāre vāste behad sahūlat chāhtā huuñ maiñ

davām-e-jahl o hāl-e-istirāhat chāhtā huuñ maiñ

na dekho kaash tum vo ḳhvāb jo dekhā kiyā huuñ maiñ

vo saare ḳhvāb the qassāb jo dekhā kiyā huuñ maiñ

ḳharāsh-e-dil se tum be-rishta be-maqdūr Thahro

mire jahmīm-e-zāt-e-zāt se tum duur Thahro

koī ‘zaryūn’ koī bhī clerk aur koī kārinda

koī bhī bank afsar senator koī pāvanda

har ik haivān-e-sarkārī ko TaTTū jāntā huuñ maiñ

so zāhir hai ise shai se ziyāda māntā huuñ maiñ

tumheñ ho sub.h-dam taufīq bas aḳhbār paḌhne

tumheñ ai kaash bīmārī na ho dīvār paḌhne

ajab hai ‘sartre’ aur ‘ressel’ bhī aḳhbār paḌhte the

vo mālūmāt ke maidān ke shauqīn būḌhe the

nahīñ ma.alūm mujh ko aam shahrī kaise hote haiñ

vo kaise apnā banjar naam banjar-pan meñ bote haiñ

maiñ ”urr” se aaj tak ik aam shahrī ho nahīñ paayā

isī baa.is maiñ huuñ amboh lazzat se be-māya

magar tum ik do-pāya raast qāmat ho ke dikhlānā

suno rā.e-dahinda bin hue tum baaz mat aanā

faqat ‘zaryūn’ ho tum ya.anī apnā sābiqā chhoḌo

faqat ‘zaryūn’ ho tum ya.anī apnā lāhiqā chhoḌo

magar maiñ kaun jo chāhūñ tumhāre baab meñ kuchh bhī

bhalā kyuuñ ho mire ehsās ke asbāb meñ kuchh bhī

tumhārā baap ya.anī maiñ abas maiñ ik abas-tar maiñ

magar maiñ ya.anī jaane kaun achchhā maiñ sarāsar maiñ

maiñ kāsa-bāz o kīna-sāz o kāsa-tan huuñ kuttā huuñ

maiñ ik nañgīn-e-būdash huuñ pa tum to sirr-e-mun.am ho

tumhārā baap rūhul-quds thā tum ibn-e-maryam ho

ye qulqul tīsrā paig ab to chauthā ho gumāñ ye hai

gumāñ mujh se koī ḳhaas rishta ho gumāñ ye hai

gumāñ ye hai ki maiñ jo rahā thā aa rahā huuñ maiñ

magar maiñ aa rahā kab huuñ piyāpe rahā huuñ maiñ

ye chauthā paig hai ūñ-hūñ zalālat ga.ī mujh se

zalālat ga.ī mujh se ḳhayānat ga.ī mujh se

jozāmī ho ga.ī ‘vazzāh’ mahbūb vāvailā

magar is gila kyā jab nahīñ aayā koī eilā

suno merī kahānī par miyāñ merī kahānī kyā

maiñ yaksar rā.igānī huuñ hisāb-e-rā.igānī kyā

bahut kuchh thā kabhī shāyad par ab kuchh bhī nahīñ huuñ maiñ

na apnā ham-nafas huuñ maiñ na apnā ham-nashīñ huuñ maiñ

kabhī baat hai fariyād merā vo kabhī ya.anī

nahīñ is koī matlab nahīñ is ke koī ma.anī

maiñ apne shahr sab se girāmī naam laḌkā thā

maiñ be-hañgām laḌkā thā maiñ sad-hañgām laḌkā thā

mire dam se ġhazab hañgāma rahtā thā mohalloñ meñ

maiñ hashr-āġhāz laḌkā thā maiñ hashr-anjām laḌkā thā

mire hindū musalmāñ sab mujhe sar par biThāte the

unhī ke faiz se ma.anī mujhe ma.anī sikhāte the

suḳhan bahtā chalā aatā hai be-bā.is ke hoñToñ se

vo kuchh kahtā chalā aatā hai be-bā.is ke hoñToñ se

maiñ ashrāf-e-kamīna-kār ko Thokar pe rakhtā thā

so maiñ mehnat-kashoñ jūtiyāñ mimbar pe rakhtā thā

maiñ shāyad ab nahīñ huuñ vo magar ab bhī vahī huuñ maiñ

ġhazab hañgāma-parvar ḳhīra-sar ab bhī vahī huuñ maiñ

magar merā thā ik taur aur bhī jo aur kuchh thā

magar merā thā ik daur aur bhī jo aur kuchh thā

maiñ apne shahr-e-ilm-o-fan thā ik naujavāñ kāhin

mire tilmīz-e-ilm-o-fan mire baabā ke the ham-sin

mirā baabā mujhe ḳhāmosh āvāzeñ sunātā thā

vo apne-āp meñ gum mujh ko pur-hālī sikhātā thā

vo hai.at-dāñ vo aalim nāf-e-shab meñ chhat pe jaatā thā

rasad rishta sayyāroñ se rakhtā thā nibhātā thā

use ḳhvāhish thī shohrat na koī hirs-e-daulat thī

baḌe se qutr ik dūrbīn us zarūrat thī

mirī maañ tamannāoñ qātil thā vo qallāma

mirī maañ merī mahbūba qayāmat hasīna thī

sitam ye hai ye kahne se jhijaktā thā vo fahhāma

thā behad ishti.āl-añgez bad-qismat o allāma

ḳhalaf us ke ḳhazaf aur be-nihāyat nā-ḳhalaf nikle

ham us ke saare beTe intihā.ī be-sharaf nikle

maiñ us ālim-tarīn-e-dahr fikrat munkir thā

maiñ fastā.ī thā jāhil thā aur mantiq māhir thā

par ab merī ye shohrat hai ki maiñ bas ik sharābī huuñ

maiñ apne dūdmān-e-ilm ḳhāna-ḳharābī huuñ

sagān-e-ḳhūk zād-e-barzan o bāzār-e-be-maġhzī

mirī jānib ab apne thobaḌe shāhāna karte haiñ

zinā-zāde mirī izzat bhī gustāḳhāna karte haiñ

kamīne sharm bhī ab mujh se be-sharmāna karte the

mujhe is shaam hai apne laboñ par ik suḳhan laanā

‘alī’ darvesh thā tum us ko apnā jadd na batlānā

vo sibtain-e-mohamād, jin ko jaane kyuuñ bahut arfa.a

tum un duur nisbat se bhī yaksar mukar jaanā

ki is nisbat se zahar o zaḳhm ko sahnā zarūrī hai

ajab ġhairat se ġhaltīda-ba-ḳhūñ rahnā zarūrī hai

vo shajra jo kanāna fahr ġhālib ka.ab marra se

qusai o hāshim o sheba abū-tālib tak aatā thā

vo ik andoh thā tārīḳh andoh-e-sozinda

vo nāmoñ daraḳht-e-zard thā aur us shāḳhoñ ko

kisī tannūr ke haizam ḳhākistar banñā thā

use sho.ala-zada būdash ik bistar banñā thā

hamārā faḳhr thā faqr aur dānish apnī pūñjī thī

nasab-nāmoñ ke ham ne kitne parcham lapeTe haiñ

mire ham-shahr ‘zaryūn’ ik fusūñ hai nasl ham, donoñ

faqat aadam ke beTe haiñ faqat aadam ke beTe haiñ

maiñ jab ausān apne khone lagtā huuñ to hañstā huuñ

maiñ tum ko yaad kar ke rone lagtā huuñ to hañstā huuñ

hamesha maiñ ḳhudā hāfiz hamesha maiñ ḳhudā hāfiz

ḳhudā hāfiz

ḳhudā hāfiz 

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