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Friday, March 14, 2025

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राजधानी की नदी हूँ

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राजधानी की नदी हूँ।

साँवला था तन मगर, मन मोहिनी थी
कल्पनाओं की तरह ही, सोहिनी थी
अब न जाने कौन सा रँग, हो गया है
बाँकपन जाने कहाँ पर, खो गया है
देह से अंत:करण तक
आधुनिकता से लदी हूँ ।

पांडु रोगी हो गए, संकल्प सारे
सोच में डूबे दिखें, भीषम किनारे
काल सीपी ने चुराए, श्वेत मोती
दर्द की उठती हिलोरें, मन भिगोती
कौरवों के हाथ जकड़ी
बेसहारा द्रोपदी हूँ ।

दौड़ती रुकती न दिल्ली,बात करती
रोग पीड़ित धार जल की, साँस भरती
उर्मियों पर नाव अब, दिखती न चलती
कुमुदनी कोई नहीं, खिलती मचलती
न्याय मंदिर भटकती
अनसुनी सी त्रासदी हूँ।

कालिया था एक जो, मारा गया था
दुष्टता के बाद भी, तारा गया था
कौन आयेगा यहाँ, बंसी बजाने
कालिया कुल को पुनः, जड़ से मिटाने
आस का दीपक सम्हाले
टिमटिमाती सी सदी हूँ ।

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