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व्यतीत भूमि
ग्रीष्म की वर्षा से धुली हवा हिलती पत्तियाँ
लखते पेड़ पर
रुग्ण शरीर हल्का हो उठता है अचानक
मस्तिष्क भुनभुना जाता है कान में एक गर्मी
हमारे रास्ते पर पड़ी परत को पिघलाती
अनावृत करती जाती है —
कविता माँगती है तीखी सम्वेदना
इस समय
शहर में सड़क पर भागते स्कूटरों के शोर के बीच
इस दुमंज़िले की बजाए
हम सिर्फ़ पहाड़ी घाटियों में झरनों के पास
पेड़ों के बीच किसी कुटी में भी
हो सकते थे
याद आता है जापानी कवि…….
तुम शताब्दियों पीछे
छोड़ आए हो अपनी भूमि
भाषा में
अजनबी शब्दों की बहुतायत है इस समय
शब्द भी तुम्हें मजबूर करते हैं
अनावृत करने को