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शाम के साहिल से उठकर चल दिए
दिन समेटा, रात के घर चल दिए।
हर तरफ़ से लौटकर आख़िर तभी
तेरे मक़्तल की तरफ़ सर चल दिए।
इक अज़ाने बेनवा ऎसी उठी
झूम कर मिनारो-मिम्बर चल दिए।
है उफ़क के पार सबका आशियाँ
ये सुना तो सारे बेघर चल दिए।
छू गए गर तेरे दामन से कभी
ख़ार भी होकर मुअत्तर चल दिए।