34.1 C
Delhi
Friday, October 18, 2024

Buy now

Adsspot_img

सपनों की उधेड़बुन

- Advertisement -

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही ख़यालों में
मान कर अपने !

सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आँख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतज़ार
सपनों वाली रात का
इसलिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया ज़ोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !

अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आँख
और
सपनों की उधेड़बुन से !

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

0FansLike
3,912FollowersFollow
14,700SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles