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इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख़्वाब कहाँ
बेकली दिल ही की तमाशा है
बर्क़ में ऐसे इज़्तेराब कहाँ
हस्ती अपनी है बीच में पर्दा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ
गिरिया-ए-शब से सुर्ख़ हैं आँखें
मुझ बला नोश को शराब कहाँ
इश्क़ है आशिक़ों को जलने को
ये जहन्नुम में है अज़ाब कहाँ
महव हैं इस किताबी चेहरे के
आशिक़ों को सर-ए-किताब कहाँ
इश्क़ का घर है ‘मीर’ से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँख़राब कहाँ