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ब-रंग-ए-बू-ए-गुल, इस बाग़ के हम आश्ना होते
कि हम-राह-ए-सबा टुक सैर करते, और हवा होते
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगरना हम ख़ुदा थे, गर दिल-ए-बेमुद्दआ होते
फ़लक, ऐ काश्! हमको ख़ाक ही रखता, कि उस में हम
ग़ुबार-ए-राह होते या किसी की ख़ाक-ए-पा होते
इलाही कैसे होते हैं जिंहें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गार होती है, ख़ुदा होते
कहें जो कुछ मलामतगार, बजा है ‘मीर’ क्या जाने
उंहें मालूम तब होता, कि वैसे से जुदा होते