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ओ मितवा
जब रात उतरती है
आसमान से
नहीं उतरता कोई
तारा नींद में
रात भर
उड़ती रहती है
एक काली तितली
नींद के जंगल में
अपने लिये
किसी सुर्ख़ गुलाब की
तलाश में
ओ मितवा!
नींद के पास से
क्यों खो गया है पता
उस घर का
जिसमें खिड़्कियां थीं
रोशनदान थे
और थी शिशुवत नींद भी
अब खंडहर है
स्मृतियों का
ठहरा हुआ
समय से बाहर
पत्थर की तरह
ठंडे और सख़्त अंधेरे में
ओ मितवा!
समय के पाताल में
भोग रही है
नींद
अपने हिस्से का नर्क।