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यार बिन तल्ख़ जिंदगानी थी
दोस्ती मुद्दई-ए-जानी थी
शेब में फ़ायदा त’म्मुल का
सोचना तब था जब जवानी थी
मेरे क़िस्से से सब की नींदें गईं
कुछ अजब तौर की कहानी थी
कू-ए-क़ातिल से बच के निकला ख़िज़्र
इसी में उस की ज़िंदगनी थी
फ़ित्र पर भी था ‘मीर’ के इक रंग
कफ़नी पहनी तो ज़ाफ़रानी थी