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दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-निको न गया / मीर तक़ी ‘मीर’

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दिल से शौक़-ए-रुख़-ए-निको न गया
झँकना ताकना कभु न गया

हर क़दम पर थी उस की मंज़िल लेक
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया

सब गये होश-ओ-सब्र-ओ-ताब-ओ-तवाँ
लेकिन ऐ दाग़ दिल से तु न गया

हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उन को देखा तो ख़ुदा याद आ गया

दिल में कितने मसौदे थे वले
एक पेश उस के रू-ब-रू न गया

सुबाह गर्दान ही ‘मीर’ हम तो रहे
दस्त-ए-कोताह ता सबू न गया

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