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था मुस्तेआर हुस्न से उसके जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़हूर था
हंगामा गर्म कुन जो दिले-नासुबूर था
पैदा हर एक नाला-ए-शोरे-नशूर था
पहुँचा जो आप को तो मैं पहुँचा खुदा के तईं
मालूम अब हुआ कि बहोत मैं भी दूर था
आतिश बुलन्द दिल की न थी वर्ना ऐ कलीम
यक शोला बर्क़े-ख़िरमने-सद कोहे-तूर था
हम ख़ाक में मिले तो मिले लेकिन ऐ सिपहर
उस शोख़ को भी राह पे लाना ज़रूर था
मजलिस में रात एक तेरे परतवे बग़ैर
क्या शम्म क्या पतंग हर एक बे-हज़ूर था
मूनिम के पास क़ाक़िमो-सिंजाब था तो क्या
उस रिन्द की भी रात कटी जोकि ऊर था
कल पाँव एक कासा-ऐ-सर पर जो आ गया
यक-सर वो इस्तख़्वान शिकस्तों चूर था
कहने लगा के देख के चल राह बे-ख़बर
मैं भी कभू किसी का सर-ऐ-पुर-ग़ुरूर था
था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीं में ‘मीर’
समझे न हम तो फ़हम का अपने क़सूर था