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जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया / मीर तक़ी ‘मीर’

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जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मेरे साया न गया

दिल के तईं आतिश-ऐ-हिज्राँ से बचाया न गया
घर जला सामने पर हम से बुझाया न गया

क्या तुनक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह
इक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया

दिल जो दीदार का क़ायेल की बहोत भूका था
इस सितम-कुश्ता से यक ज़ख्म भी खाया न गया

शहर-ऐ-दिल आह अजब जाए थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया

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