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३१.
‘मीर’ बन्दों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
३२.
कहता है कौन तुझको याँ यह न कर तू वोह कर
पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह कर
३३.
ताअ़त कोई करै है जब अब्र ज़ोर झूमे ?
गर हो सके तो ज़ाहिद ! उस वक़्त में गुनह कर
३४.
क्यों तूने आख़िर-आख़िर उस वक़्त मुँह दिखाया
दी जान ‘मीर’ ने जो हसरत से इक निगह कर
३५.
आगे किसू के क्या करें दस्तेतमअ़ दराज़
ये हाथ सो गया है सिरहाने धरे-धरे
३६.
न गया ‘मीर’ अपनी किश्ती से
एक भी तख़्ता पार साहिल तक
३७.
गुल की जफ़ा भी देखी,देखी वफ़ा-ए-बुलबुल
इक मुश्त पर पड़े हैं गुलशन में जा-ए-बुलबुल
३८.
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
हो गए ख़ाक इन्तिहा है यह
४०.
पहुँचा न उसकी दाद को मजलिस में कोई रात
मारा बहुत पतंग ने सर शम्अदान पर