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एक भूत में होत, भूत भज पंचभूत भ्रम।
अनिल-अंबु-आकास, अवनि ह्वै जाति आगि सम॥
पंथ थकित मद मुकित, सुखित सर सिंधुर जोवत।
काकोदर करि कोस, उदरतर केहरि सोवत॥
पिय प्रबल जीव इहि विधि अबल, सकल विकल जलथल रहत।
तजि ‘केसवदास’ उदास मग, जेठ मास जेठहिं कहत॥